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Friday, October 15, 2010

2. गिरफ्तारी से पूर्व की त्रासदी।

जैसा कि मैं प्रथम किश्त में लिख चुका हूँ कि 01 मई, 1982 को अपहरण, बलात्कार एवं हत्या के आरोप में मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी को भी पुलिस ने ऐसी नाटकीयता से दिखाया, मानो उन्होंने किसी दुर्दान्त इनामी दस्यू (डाकू) को गिरफ्तार कर लिया हो, जबकि मुझे मेरे ही एक रिश्तेदार ने (भुआ के बेटे) धोखे से गिरफ्तार करवाया था। मैं मेरी तब तक की समझ के अनुसार, किसी भी स्थिति में गिरफ्तार नहीं होना चाहता था। उस समय के मेरे कच्चे मन में मेरे जीवन को बर्बाद करने वाले लोगों के विरुद्द (जिनके बारे में तब तक मुझे कोई जानकारी भी नहीं थी, वे कौन थे) भयंकर गुस्सा था, जिन्होंने झूठे और घिनौने आरोप में मुझे फंसाया था। उनसे बदला लेने के अनेक प्रकार के विचार थे। कुल मिलाकर मैं गिरफ्तार नहीं होना चाहता था।

मैं यहाँ पर यह अवगत करवाना जरूरी समझता हूँ कि जैसे ही मुझे घटना के तीसरे दिन समाचार-पत्रों के माध्यम से ज्ञात हुआ कि मैं जिस मन्दिर में रहता था, उसमें एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ और बाद में उसकी मृत्यु हो गयी, जिसके आरोप में मन्दिर के पुजारी को पुलिस ने हिरासत में लिया था और बाद में छोड भी दिया था। जिसके कारण गुस्साई आम जनता ने थाने पर पथराव किया और थाने को आग लगाने का भी प्रयास किया गया तो पुलिस ने जनता को बताया कि पुजारी नहीं, बल्कि असली अपराधी दूसरा है।

अपराधी के रूप में मेरा नाम प्रेस को जारी किया गया था। यह सब पढकर मुझ पर क्या गुजरी होगी? इस बारे में आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं! उस दिन की मेरी मनोस्थिति को मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। यदि घटना के दिन मैं, जिस व्यक्ति के यहाँ पर था, वह साक्षी नहीं होता तो मेरे लिये कम से कम अपनों को तो सिद्ध करना असम्भव था कि मैं घटना वाले दिन अपने कमरे (मन्दिर) पर था ही नहीं। इसके चलते मेरे सभी स्वजनों को बाद में मुझसे मिलने के बाद तो इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया था कि मैं निर्दोष था और षड़यंत्र का शिकार हो चुका था। इस बात से कुछ पाठक मित्रों की यह भ्रान्ति समाप्त हो जानी चाहिये कि मेरे परिवारजनों ने मुझ पर, मेरे निर्दोष होने पर, विश्वास क्यों नहीं किया?
अब सवाल है कि जब परिवारजनों ने विश्वास कर लिया तो फिर परिवारजनों द्वारा मुझे क्यों मृत्यु से भी बदतर सजा दी जा रही है? अन्य अनेक कारणों के अलावा इस बात को भी समाज के समक्ष लाने के लिये यह दास्तां लिखी जा रही है। जिससे कि मेरे माता-पिता, भाई-बन्धुओं के सामाजिक उत्पीडन से दुनिया अवगत हो सके।
जैसा कि सभी जानते हैं कि विद्यार्थी जीवन अनेक प्रकार की उमंगों से भरा होता है, मेरा तो कुल मिलाकर विद्यार्थी जीवन ही 6-7 वर्ष का था, सो मेरा जीवन भी उमंगों से और अनेक प्रकार की आकांक्षाओं से भरा हुआ था। बीए की अन्तिम वर्ष की परीक्षाएँ मई, 1982 में होने वाली थी। मैं पिछले वर्षों से भी अधिक मेहनत कर रहा था। बीए करके अपने राज्य की राजधानी स्थित यूनीवर्सिटी में प्रवेश लेकर अर्थशास्त्र में एमए करने का इरादा था।

मैं जिस कस्बे में पढ रहा था, वहाँ पर 1977 में ही पहला कॉलेज खुला था, सो उस समय तक कस्बे में नौकरियों की प्रतियोगिताओं के बारे में विशेष कुछ जानकारी नहीं मिल पाती थी। फिर भी मेरी चाह थी कि सबसे पहले एमए करके कॉलेज में व्याख्याता बनूँ और फिर आर्थिक समस्या से निजात मिलते ही पूयीएससी की तैयारी करनी है। कलेक्टर बनने या अपने राज्य की पीएसएसी के माध्यम से प्रशासनिक सेवा में जाने की तीव्र आकांक्षा थी। पता नहीं सफल  हो भी पाता या नहीं, लेकिन आशा तो थी ही।

सारी की सारी उमंगें समाचार-पत्र में बलात्कारी और हत्यारे के रूप में अपने आपका नाम पढकर धडाम से टूट गयी। ऐसा लगा मानो मुझे कई मंजिल ऊपर से बेहरहमी से जमीन पर फैंक दिया गया हो और मुझे लगा कि मैं पूरी तरह से पंगु हो गया हूँ। किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा मैं सोच ही नहीं पा रहा था कि किया क्या जाये? बस एक ही विचार बार-बार दिमांग में कौंध रहा था कि पुलिस ने पकड़ लिया तो बहुत मारेगी। प्रकाशित समाचार के अनुसार कस्बे का माहौल बहुत खराब था। आम लोगों का आक्रोश सातवें आसमान पर था। जिसके चलते छोटे से कस्बे का नाम राज्य के सबसे बड़े समाचार-पत्र के प्रथम पृष्ठ पर था। मैं उस समय भी इतना तो जानता ही था कि पहले पृष्ठ पर खबर छपने का मतलब क्या होता है।

ऐसे में मैंने, जिनके यहाँ पर था, उनसे सलाह की, मुझे सलाह दी गयी कि यदि इस समय मैं जनता की पकड़ में आ गया तो जनता मुझे जान से खतम भी कर सकती है। अत: कुछ समय तक इधर-उधर गायब रहना ही ठीक होगा। इसके अलावा मैंने भी अपने तब के विवेक से पुलिस की गिरफ्तारी से बचने का निर्णय लिया और कहीं दूर, अनजान जगह पर भाग जाने का तय किया, लेकिन कहाँ? तब तक मुझे अपने तहसील मुख्यालय से आगे का तो कोई ज्ञान था ही नहीं। इससे पूर्व एक बार दो दिन के लिये अपने राज्य की राजधानी में गया। अन्यथा मेरा तब तक जीवन अपने गाँव और तहसील मुख्यालय तक ही सीमित था।

विपन्नता को खूब सहा था। हमेशा हाथ तंग रहता था। मेरी जेब में उस समय कोई 10 रुपये तथा कुछ चिल्लर ही थी। बस या रेल में यात्रा करने पर किसी के द्वारा पहचाने जाने का भय (क्योंकि समाचार-पत्रों में मेरा फोटो भी छप चुका था) और जेब में बचे रुपयों के खर्च हो जाने के बाद क्या होगा, यह सवाल भी मुंह बाये सामने खड़ा था? फिर भी उस विकत स्थिति में कोई न कोई निर्णय तो लेना ही था। जिनके यहाँ रुका था, उनसे रुपये मांगने ही हिम्मत नहीं हुई और उन्होंने आगे से ममद के लिये कहा नहीं। उनकी आर्थिक दशा भी बहुत अच्छी नहीं थी, हो सकता है, उनके पास भी उस समय धनाभाव रहा हो?

पाठक तय करेंगे कि मेरा निर्णय कितना सही था, लेकिन मैं आज भी मानता हूँ कि मेरा निर्णय सौ फीसदी सही था। मैंने अपने कस्बे को ही नहीं, बल्कि अपने जिले की सीमा को भी पार करने का तय कर लिया। लेकिन कुछ दूरी तय करते ही कदम रुक गये। अपने आपसे मैंने एक सवाल किया, किस रास्ते से जाओंगे? रास्ते में किसी ने पहचान लिया तो क्या होगा? तब बिना रास्ते जंगल और खेतों में होकर चलने का विचार आया तो फिर सवाल उठा कि कोई पूछेगा कि रास्ते के बजाय मैं इस प्रकार बेरास्ता क्यों भटक रहा हूँ तो क्या जवाब दूँगा? कॉलेज के कपड़ों में इस प्रकार भटकने पर कोई भी मुझ पर आसानी से सन्देह कर सकता था।

कुछ क्षण सोचा और अपने थैले (बैग रखने लायक तो आर्थिक स्थिति थी नहीं, मेरे पास कपड़े का सिला हुआ एक साधारण थैला था, जो कहीं आने-जाने के समय जरूरी कपड़े रखने के लिये उपयोग किया जाता था। जिसे मैं कस्बे से बाहर जाते समय अपने साथ ले गया था) को मैंने देखा उसमें एक जोडी अण्डरवियर-बनियान, तौलिया, शर्ट और लुंगी रखी थे। मैं कॉलेज के दिनों से अभी तक सफारी शूट पहनने का शौकीन हूँ। (यह भी मेरी पहचान का संकेत है।) उस दिन भी सफारी शूट पहन रखा था। सफारी शूट झटपट उतारा और थैले में रखी लुंगी लपेटी, शर्ट पहनी और तौलिया को सिर पर ऐसे बांध लिया जैसे कि गाँव के लोग बांधते हैं और सफारी शूट को थैले में रख लिया। एक बार फिर से गाँव के चरवाहे का रूप धारण कर लिया और अपने कल्पित (सोचे) मार्ग पर निकल लिया। अब लोग पूछेंगे कि बेरास्ता क्यों चल रहे हो तो इसका मेरे पास जवाब था-"मेरी भैंसें कहीं खो गयी हैं, उन्हें ढूँढ रहा हूँ, क्या कहीं देखा है?" गर्मियों के समय अकसर ग्रामीणों की भैंसें गाँव का रास्ता भटक जाती हैं, जिन्हें ढूँढने वाले इसी प्रकार खेत-खेत और जंगल-जंगल भटकते रहते हैं। मैं भी पूर्व में इस प्रकार अपनी भैंसों को ढूंढते हुए अनेक बार भटक चुका था।

मैं खेतों को पार करते हुए, चला जा रहा था। रास्ते में एक कुआ आया। पानी पिया और पेड़ की छांया में तौलिया बिछाकर लेट गया, नींद आ गयी और जब नींद खुली तो रात्री होने को थी। कुए के मालिक ने ही जगाया था। पूछा तबियत तो ठीक है? कुछ खाया है या नहीं? (मैं सोने से पहले ही उसे भैंस खोजने वाली बात बतला चुका था।) कहते हुए उसने अपने खेत के कुछ फल मुझे खाने को दे दिये। खाकर सन्तोष हुआ कि चलो आज का दिन तो खाली पेट नहीं सोना पड़ेगा। पानी पीकर चलने को हुआ तो कुआ मालिक बोला रात्री हो गयी है, कहाँ जाओगे यहीं सो जाओ। अपने अन्दर से एक आवाज आयी कि रात्री गुजारने का अच्छा अवसर है, लेकिन तत्काल दूसरी आवाज भी आ गयी रातभर कुआ-वाला तरह-तरह की बात करेगा और नाम-गाँव पूछेगा तो मेरी असलियत पता चल सकती है। सो तय किया कि "नहीं मुझे गाँव में भैंसें तलाशनी हैं। चलता हूँ" और बिना एक क्षण रुके या बिना कुए वाले के प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा किये चल दिया।

चलते-चलते रात हो गयी। रात कैसे गुजारी जाये? यह सवाल अभी भी बार-बार कौंध रहा था। बस सन्तोष इतना सा था कि गर्मी का मौसम होने के कारण सर्दी का भय नहीं था। इसी उधेड़बुन में कई किलोमीटर तक चलते-चलते मैं फिर एक कुए पर पहुंच गया। तब तक रात्री के कोई 10 बज गये थे। कुए के पास में ही लेज (रस्सी)-बाल्टी पड़ी थी। (उस जमाने में किसान अकसर अपने कुआ पर लेज-बाल्टी रखे रखते थे, जिससे कि कोई भी राहगीर प्यासा कुए पर आये तो प्यासा वापस नहीं जाये।) बाल्टी कुए में डाली पानी पिया। कुए पर कोई नहीं था, एकदम सन्नाटा छाया हुआ था। दूर कहीं सियारों की आवाज सुनाई दे रही थी। कुछ दूरी पर दियों (दीपकों) की जुगनू की भांति टिमटिमाती रोशनी से किसी गाँव या आबादी का अहसास हो रहा था। कुआ के पास में ही एक झोंपडी बनी हुई थी। जिसमें अंधेरे में कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। उस दिन धूम्रपान नहीं करने की आदत पर भी अफसोस हुआ कि काश धूम्रपान करता होता तो साथ में माचिस तो होती और माचिस जलाकर देख सकता था कि झोंपडी के अन्दर क्या है? खैर अंधेरे में ही झोंपडी से दूर सुनसान खेत में अपना तौलिया बिछाया और अपने थैले का तकिया बनाकर सो गया। हालांकि जंगल में इस प्रकार अकेले में सोने में कई प्रकार के भय भी थे, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प भी तो नहीं था।

दिन में सो लेने और भयाक्रान्त हालातों के कारण इतना तनाव था कि नींद कहीं दूर-दूर तक भी नहीं भटक रही थी, लेकिन विचार तन्द्रा में न जाने कब आँख लग गयी, कुछ घण्टे सोया। सूर्योदय से पूर्व ही जागा और नैतिक क्रियाकर्मों से निवृत होकर चल दिया। 07 बजे तक मैं अपने जिले की सीमा पार कर चुका था और सांझ होते-होते मैं अपने आराध्य के प्रांगण में था।

इस प्रकार मेरे दिन और रात नये-नये अनुभवों के साथ गुजरते गये, लेकिन मुझे आपको यह बतलाते हुए आश्चर्य हो रहा है कि इतने दिनों तक मेरी जेब में रखे रुपयों में से मुझे दो-तीन रुपये ही खर्च करने पडे, जो भी खाने पीने पर नहीं, बल्कि माचिस, मोमबत्ती और साबुन खरीदने पर, स्वेच्छा से खर्चे। आगे से आगे मेरे खाने और ठहरने की व्यवस्था होती गयी।

हालांकि इस बीच एक दिन ऐसा भी आया जब जंगल के रास्ते पेड़ की डाली को हटाकर निकलते समय काला सांप मेरे सिर से मात्र कुछ इंच की दूरी पर जीभ लपलपा रहा था और मेरे लिये पेड़ को हिलाये बिना, पेड़ के नीचे से निकल पाना असम्भव था।

खैर जैसे-तैसे सब कुछ निकल गया और भटकते-भटकते एक रिश्तेदार के सम्पर्क में आया, वह मुझे सामने देखते ही ऐसे घबराया मानो उसने किसी जिन्द को देख लिया हो, उसने झटपट मुझे अन्दर छिपा दिया और वहीं पर मेरे खाने-पीने की व्यवस्था कर दी। एक दिन और एक रात मुझे सूरज के दर्शन नहीं करने दिये। इस बीच उसने मेरे परिवारजनों एवं अन्य रिश्तदारों से सम्पर्क किया और उनकी सलाह पर मुझे मेरी बुआ के यहाँ जाने की सलाह दी हालांकि साथ ही हिदायत दे दी कि मैं बुआ के गाँव में नहीं, बल्कि उनके खेत पर जाऊँ और रात्री को पहुँचू, वहाँ पर मुझे आगे की जानकारी दी जायेगी।

कुछ दिनों की पैदल यात्रा के बाद जैसे-तैसे मैं भुआ के खेत पर पहुँचा, उन सभी ने भी मुझे खेत पर जानवरों के लिये बन बाड़े के झोंपडों में छिपाकर रखा और अगले दिन (01.05.1982) सुबह मुझे बाहर आने को कहा। पास में ही बह रही नदी पर नहाया और खाना खाया। मुझे बताया गया कि किसी बड़े आदमी से सिफारिश करवादी गयी है, इसलिये जल्द ही मामला समाप्त हो जायेगा। साथ ही मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करने की सलाह दी गयी और इसी प्रकार की बातें करते हुए मेरी बुआ के लड़के मुझे अपने खेत से गाँव की ओर साथ लेकर चल दिये। कोई आधा किलोमीटर चलने के बाद एक पेड़ के नीचे पुलिस की जीप दिखी थी। मैंने बुआ के लड़के से कहा कि ये क्या है? उसने कहा "मेरे पास-और कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि पुलिस ने मामाजी को (मेरे पिताजी को) थाने पर बिठा रखा है! इसलिये तेरी गिरफ्तारी जरूरी है।" मैं भाग भी नहीं सकता था, फिर भी उन्हाने मेरा हाथ इस प्रकार से पकड़ लिया जैसे कि मैं भाग नहीं सकूँ। पुलिस को देखने के बाद और भुआ के लड़के की असलियत सामने आते ही मेरे मन में न जाने कितने प्रकार के विचार और सवाल-जवाब कौंध गये। लेकिन मेरे पास कोई रास्ता शेष नहीं था।

कुछ कागजी खानापूर्ति करने के बाद पुलिस मुझे पास के थाने पर ले गयी, जहाँ पर पुलिस ने हाथ में हथकड़ी डालकर और मेरी बुरी दशा में ही मेरे फोटो निकलवाये। फोटो निकालने वाला मेरा कई वर्ष पूर्व का परिचित व्यक्ति था और वह मुझे बहुत इज्जत देता रहा था, लेकिन उस दिन वह एक अपराधी के रूप में मेरा फोटो निकाल रहा था। इस थाने से मुझे उस थाने पर ले जाया गया, जहाँ पर मेरे खिलाफ मामला पंजीबद्ध था। जहाँ पहुँचते ही मुझे हवालात में बन्द कर दिया। हवालात में पहले से ही एक अन्य व्यक्ति बन्द था, जिसके बारे में पूछताछ करने पर पता चला कि वह सीमान्त प्रान्त का इनामी डकैत था।

नोट : हवालात में क्या-क्या हुआ और पुलिस का व्यवहार कैसा रहा? आदि विषयों पर आगे लिखूँगा, लेकिन इससे पूर्व पाठकों से अनुरोध है कि-
-कृपया मुझे अपनी राय से अवगत करावें कि हवालात में और बाद में जेल में अनेक अच्छे-बुरे (मेरी राय में) कैदियों, से मेरी मुलाकात होनी है, जिनमें से कुछेक की संक्षिप्त दास्ताँ भी समाज, न्यायिक, पुलिस और जेल व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाली है।
-मेरा सवाल है कि क्या मैं, इन सभी के बारे में भी संक्षेप में लिखूँ या सिर्फ अपनी दास्तान तक ही सीमित रहूँ। वैसे फिल्मों के आधार पर कोर्ट, पुलिस और जेल को जानकर, इन सब के बारे में राय बनाने वाले पाठकों के लिये यह एक अवसर है कि इन सबकी असलियत को जानें और समझें। कृपया अपनी राय से खुलकर अवगत करावें।
-यहाँ पर आप सभी पाठकों से निवेदन है कि कृपया विश्वास करें कि जो भी लिख रहा हूँ, उसमें अतिरंजना को दूर रखकर, शतप्रतिशत सच्चाई, बल्कि सच्चाई को भी संक्षेप में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
-हाँ कोर्ट के मामले में संयमित भाषा का उपयोग करना मेरी विवशता होगी है, क्योंकि न्यायिक अवमानना की तलवार कोर्ट की ओर से हमेशा टंगी रहती है। इस बारे में भी आगे चलकर मैं विधि एवं न्याय व्यवस्था से जुड़े पाठकों की राय जानने का अनुरोध करूँगा।
क्रमश: जारी.........
1- मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये  या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।

3- यदि आप मुझे मेल करना चाहें तो मेरा मेल आईडी निम्न है। कृपया व्यक्तिगत पहचान प्रकट करने वाले सवाल नहीं करे।
umraquaidi@gmail.com 
2- थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा। 
पाठकों की प्रतिक्रियाओं का इन्तजार.............. 

Thursday, October 14, 2010

पाठक और मैं-1

मेरे इस ब्लॉग पर आकर अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने, अपने महत्वपूर्ण विचार एवं अनुभव मेरे साथ बांटे हैं। जिसके लिये मैं सभी का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।

कई मित्रों ने मुझे अपनी ओर से सहयोग प्रदान करने का विश्वास भी दिलाया है। जिसके लिये मैं उन सभी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। इसी सन्दर्भ में एक साथी श्री अरुण सी राय जी ने लिखा है कि-
"यहाँ लिखने की बजाय आप मनोज पॉकेट बुक्स, हिंद पॉकेट बुक्स, तुलसी पॉकेट बुक्स आदि के पास जाएँ तो यह कहानी सुपर हिट होगी.. किसी सीरिअल प्रोडूसर के पास भी जा सकते हैं.. लेकिन वह भी सावधान रहिएगा कि आपको कहानी का ड्यू क्रेडिट मिले।"
इस बारे में, मैंने श्री राय जी के ब्लॉग पर जाकर उनका ई-मेल आईडी पता किया और उन्हें मेल किया तथा इस बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करनी चाही, लेकिन अभी तक कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला है। हो सकता है कि श्री राय साहब किसी वजह से इतने व्यस्त रहे हों कि मेरा मेल देख ही नहीं पाये हों। या वे इस मेल आईडी को कम उपयोग करते हों।

इस बारे में भी मेरा पाठकों से आग्रह है कि यदि आप किसी प्रकार का मार्गदर्शन या सहयोग करने का आश्वासन देते हैं तो (हालांकि मुझे व्यक्तिगत रूप से वर्तमान कम से कम आर्थिक सहयोग की कोई दरकार नहीं है।) अपना ई-मेल आईडी या अन्य कोई सम्पर्क सूत्र दे सकें तो ही आपकी ओर से दिये गये किसी भी प्रकार के आश्वासन का कोई अर्थ है। और यदि कोई बात पूछना चाहूँ तो अनुरोध है कि कृपया उसका प्रतिउत्तर अवश्य देने का कष्ट करें।

मैंने श्री राय साहब को निम्न मेल किया था-
"व्यावसायिक दृष्टि से उपरोक्त महत्वपूर्ण सुझाव देने के लिये आपका फिर से आभार प्रकट करता हूँ। वास्तव में मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मैं, मेरी दु:खद परिस्थतियों का आर्थिक लाभ भी उठा सकता हूँ। आपके सुझाव और आपके ब्लॉग पर आपके परिचय को जानने के बाद विचार करना लाजिमी है। यदि आप अन्यथा नहीं लें तो आपसे ही साग्रह अनुरोध है कि कृपया इस बारे में क्या आप कोई सहयोग कर सकते हैं? हो सकता है कि कुछ धन अर्जित हो जाये और मेरे या समाज के जरूरतमन्दों के काम आ सके।"
उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में अन्य कोई पाठक मित्र किसी प्रकार की जानकारी प्रदान कर सकें या इस बारे में कोई राय देना चाहें तो मैं आभारी रहूँगा।

अनेक मित्रों ने इस बात पर सवाल उठाया है कि व्यक्तिगत सवाल क्यों नहीं पूछे जाने चाहिये या व्यक्तिगत मामला होने पर भी या यदि सच्चाई बयान करनी है तो फिर सच्चाई या व्यक्तिगत पहचान को छुपाने की क्या तुक हैं?

मित्रो, हम मानव हैं और मानव समाज में व्याप्त सभी प्रकार के गुणावगुणों से हम सभी आप्लावित हैं। अन्धकार और कौहरा हम सभी के जीवन में कभी न कभी आ ही धमकता है। हम जिस मानव समाज में रहते हैं, उस समाज में हजारों गुणों के साथ-साथ कुछेक ऐसे अवगुण या नकारात्मक व्यवहार भी विद्यमान हैं, जो हमें आपस में एक दूसरे का दुश्मन बनाने का ही काम करते रहते हैं। मेरा मानना है कि हम में से बहुत से किसी व्यक्ति का धर्म, जाति, क्षेत्र, राज्य या सरनैम जानकर ही उस व्यक्ति के बारे में अपनी सोच बदल लेते हैं। ऐसे में मेरा केवल इतना सा अनुरोध है कि मैं नहीं चाहता कि मेरी पहचान प्रकट होने के बाद कुछ मित्र मेरे प्रति विशेष आग्रह, अनुराग, दुराग्रह या पूर्वाग्रह से प्रभावित होकर अपने विचार रखें।

मैं ऐसा मानता हूँ, बल्कि मेरा ऐसा अनुभव है कि जब तक हम किसी व्यक्ति की पृष्ठभूमि या कहो व्यक्तिगत पहचान को नहीं जानते हैं, उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण निष्पक्ष, तटस्थ एवं न्यायसंगत रह सकता हैं, लेकिन जैसे ही हमें पता चलता है कि सामने वाला हिन्दू, सिक्ख, इस्लाम या ईसाई धर्म का अनुयाई है या हमें जैसे ही पता चलता है कि सामने वाले की जाति क्या है? यहाँ तक कि उसके व्यवसाय, क्षेत्र या राज्य तक का पता चलते ही हममें से अनेक के स्वाभाविक विचार और मानवीय व्यवहार तत्काल बदल जाते हैं और हम पूरी तरह से औपचाहरिक या नाटकीय व्यवहार करने लगते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हम ईमानदार नहीं रह पाते हैं। हालांकि इसके लिये हम नहीं, बल्कि हमारा वह समाज ही जिम्मेदार है, जिसमें रहकर हमारा समाजीकरण हुआ है। जहाँ हमें अच्छा-बुरा सोच संस्कारों में मिला है, जबकि इस ब्लॉग पर तो मैं अपने मन में यह विचार संजोये हुए हूँ कि आप सभी अनेक मुद्दों पर मुझे अपने अमूल्य और निष्पक्ष विचार, सलाह और मार्गदर्शन प्रदान करके उपकृत करेंगे। मुद्दे भी ऐसे होंगे कि जिन पर वास्तव में निष्पक्ष लोगों के विचारों की ही जरूरत होगी है।

इसलिये मेरी परिस्थितिजन्य विवशता है कि मैं अपनी पहचान को कम से कम अभी तो छिपा कर ही रखूँ। हाँ मैं आपको यह विश्वास अवश्य दिलाता हूँ कि इसी ब्लॉग पर आपको मेरी पूरी पहचान पढने को मिलेगी। मैं समय की मांग और परिस्थितियों की अनुमति के अनुसार बीच-बीच में भी अपनी सांकेतिक पहचान प्रकट करते रहने की सोच रहा हूँ। यह भी स्पष्ट कर दूँ कि मेरी ओर से व्यक्तिगत सवाल नहीं पूछने के अनुरोध का आशय यही है कि मेरी पहचान को प्रकट करने वाला सवाल नहीं पूछें तो ठीक होगा। अन्य कोई भी सवाल पूछने में कोई आपत्ति नहीं है।

मेरा स्पष्ट मानना है कि सवाल हमेशा उत्तर मांगते हैं और सवालों से वही भागते हैं, जिनके पास उत्तर नहीं होते हैं। इसलिये मित्रो आप मुझसे मेरे विवरण से जुडे विषयों के सम्बन्ध में खुलकर सवाल पूछें। केवल इतना सा अनुरोध है कि आप ऐसा कोई सवाल नहीं पूछें कि जिससे मेरी पहचान का पता या अनुमान होता हो।  उदाहरण के लिये एक मित्र ने पूछा है कि क्या मैं तिहाड जेल में था? आशा है कि मेरे इस अनुरोध को आप अन्यथा नहीं लेंगे।

मेरी पहचान का पहला संकेत :
मेरी पहचान का पहला संकेत यह है कि अनेक समसामयिक और अनन्य विषयों पर लिखे गये मेरे अनेकानेक आलेख अन्तरजाल पर अनेक हिन्दी न्यूज पोर्टल्स पर प्रदर्शित/प्रकाशित हो रहे हैं, जिनमें से अनेक नवभारत टाईम्स, देशबन्धु, डेली न्यूज आदि में भी प्रकाशित हो चुके हैं। न जाने क्यों, मुझे मेरे पाठक ठीक-ठाक लेखक समझकर पढते हैं। मैं अनेक ऐसे विषयों पर भी लिखता हूँ, जो पाठकों की स्थापित धारणाओं (मेरी नजर में भ्रान्तियों) को तोडते हैं, तो मुझे कटु आलोचना और असंसदीय भाषा में पाठकों के उबाल को भी झेलना पडता है। यही तो इस देश की असली तस्वीर है। यदि ऐसे पाठकों को मेरी असली पहचान पता चल जाये तो वे तो इस ब्लॉग पर आकर मुझ पर तनिक भी विश्वास नहीं करेंगे और मेरी वेदना या मेरे संघर्ष को सीधे नाटक करार दे देंगे। मैं समझता हूँ कि आप मेरे आग्रह और अनुरोध को समझ गये होंगे।
उपरोक्त के अलावा भी अनेक मित्रों ने अनेक प्रकार के सवाल उठाये हैं। यदि सभी के प्रतिउत्तर लिखने लगूँगा तो यह मेरी दास्ताँ कम और प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम अधिक लगेगा, फिर भी मैं दौहरा दूँ कि हर प्रश्न उत्तर मांगता है, सो उत्तर तो देने ही होंगे, लेकिन मित्रो यदि आप पढते जाओगे तो अधिकांश सवालों के उत्तर आगे की कड़ियों में अपने आप मिलते जायेंगे।

Sunday, October 10, 2010

1. जिन्दा लाश : क्या आप विश्वास कर सकेंगे?

मैं एक गाँव में गरीब परिवार में जन्मा। पिताजी हिन्दी पढना-लिखना जानते थे। परिवार में ही नहीं, बल्कि पूरे कुटुम्ब में अन्य कोई साक्षर भी नहीं था। मैं अपने माता-पिता की दूसरी जीवित सन्तान एवं सबसे बडा पुत्र हूँ। तीन छोटे भाई और एक बड़ी एवं एक छोटी बहन हैं।

मुझे छह वर्ष की आयु में गाँव के स्कूल में प्रवेश दिलाया गया और मात्र तीसरी पास करते ही मुझे मेरे पिताजी के स्थानीय दुश्मनों के कारण (1969 में) स्कूल छोडने को विवश होना पडा।

पिताजी की जमीन छीन ली गयी। जिसके चलते 1973 तक के साल मैंने दो रुपये प्रतिमाह प्रति जानवर की मजदूरी पर, गाय-भैंसों के चरवाहे के रूप में गुजारे। 1974 में स्थितियाँ बदल गयी। जमीन वापस मिल गयी, तो पिताजी के सहयोगी के रूप में 1976 तक खेती का काम किया।

जनवरी 1977 में मेरे छोटे भाई-बहनों को घर पर ट्यूशन बढाने आने वाले अध्यापक से मेरी फिर से पढाई शुरू करवाने पर पिताजी ने चर्चा की, जिस पर उन्होंने मेरी परीक्षा ली। मुझसे चार अंकों की संख्या अर्थात् चार हजार पाँच सौ पिच्यानवें लिखने को कहा तो मैंने 4595 लिखने के बजाय लिखा 4000, 500, 95 अर्थात् मैं तब तक तीसरी कक्षा तक की पढाई को भी भूल चुका था। जिसे जानकर अध्यापक ने कह दिया कि ये लडका नहीं पढ सकता। लेकिन मेरे पिताजी ने बार-बार आग्रह किया और मुझे फिर से पढाने का निर्णय लिया गया। 

फरवरी, 1977 में मुझे ट्यूशन पढाना शुरू कर दिया। अगस्त या सितम्बर, 1977 में दसवीं कक्षा का प्राईवेट फार्म भरवा दिया गया।

इस बीच मुझे अंग्रेजी को एबीसीडी से शुरू करके, गणित, विज्ञान, हिन्दी, संस्कृत अनिवार्य विषयों के साथ, अर्थशास्त्र, नागरिक शास्त्र, हिन्दी साहित्य वैकल्पिक विषय पढने को दिये गये।किसी को आशा नहीं थी कि मैं 13 महिने में सात वर्ष की पढाई करके पास भी हो सकता हूँ! मेरे गाँव में तीन बार से दस बार तक दसवीं में फैल होने वालों की संख्या अच्छी खासी थी। इसलिये मुझे उत्साहित करने के बजाय निराश करने वालों की संख्या ही अधिक थी।

फिर भी न जाने कौनसी ताकत थी, कि मुझे अपने आप पर विश्वास था। अनेक लोग तो मेरे पिताजी के इस निर्णय का मजाक भी उडाया करते थे। मैंने जितनी मेहनत की थी, उसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता! वास्तव में रात-दिन एक कर दिये और मार्च, 1978 में दसवीं की परीक्षा दी। कुछ माह बाद परिणाम सामने आया और मैं तृतीय श्रेणी में पास हो गया!

जिस गणित में जनवरी, 1977 में, मैं चार अंकों की संख्या लिखना नहीं आती थी, उसमें मेरे 70 फीसदी अंक आये। कुल मिलाकर 44 फीसदी अंक प्राप्त हुए। एक फीसदी की कमी के चलते मुझे द्वितीय श्रेणी नहीं मिली। जिसका मुझे आज भी पछतावा है! काश मैंने थौडी मेहनत ओर की होती। खैर....?

इस प्रकार 1969 में स्कूल छूटने के बाद 1978 में फिर से मेरा स्कूल शुरू हो गया। ग्यारहवीं कक्षा में नियमित छात्र के रूप में प्रवेश लेकर द्वितीय श्रेणी में परीक्षा पास की। 1979 में कॉलेज में पहुँच गया। जहाँ पर स्थानीय विधायक (अब दिवगंत) के करीबी गुण्डे की दादागीरी, रैंगिंग और मनमानियों का खुलकर विरोध करके मैंने खूब वाहवाही लूटी। जिसके चलते कॉलेज का माहौल पढाई के लायक बन गया। मैं जब तक कॉलेज में था, रैंगिंग पूरी तरह से भुलादी गयी। मैं पढने में ठीकठाक था। अपनी कक्षा के प्रथम तीन छात्रों में शामिल हुआ करता था।

अचानक फिर से पढाई छूट गयी। अन्तिम वर्ष की तैयारी कर रहा था। मई, 1982 में परीक्षाएँ होने वाली थी। मैं एक मन्दिर के अहाते में कमरा किराये से लेकर रहता था। 14 अप्रेल, 1982 का दिन था, मैं किसी काम से कस्बे से बाहर गया हुआ था। इसी दिन कथित रूप से मन्दिर के पुजारी (अब दिवगंत) ने एक 13 वर्ष की बच्ची के साथ बलात्कार किया। बलात्कार के अगले दिन रहस्यमय परिस्थितियों में बच्ची की मृत्यु हो गयी।

पुलिस ने घटनास्थल से पुजारी को पकड लिया। स्थानीय लोगों का कहना था कि मृत्यु से पूर्व बच्ची ने पुजारी के खिलाफ बयान भी दिया था। स्थानीय समाचार पत्रों में भी इस बारे में समाचार प्रकाशित हुए थे, लेकिन विधायक को जैसे ही पता चला कि उसके करीबी गुण्डे का विरोध करने वाला अर्थात् मैं भी मन्दिर में किरायेदार था। विधायक ने राज्य के गृहमन्त्री (अब दिवंगत) से दबाव डलवाकर पुजारी को तो छुडवा दिया और मेरे नाम से मुकदमा दर्ज करवा दिया। 

पुजारी स्थानीय विधायक की पार्टी का अच्छा कार्यकर्ता था। इसके अलावा मेरे पिताजी की जमीन छीनने वाले दुश्मनों का विधायकजी से करीब का नाता था। 

1 मई, 1982 को पुलिस ने अपहरण, बलात्कार एवं हत्या के आरोप में मुझे गिरफ्तार कर लिया।

क्रमश: जारी.........


1- मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।

2- थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा।
 



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