जैसा कि मैं प्रथम किश्त में लिख चुका हूँ कि 01 मई, 1982 को अपहरण, बलात्कार एवं हत्या के आरोप में मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी को भी पुलिस ने ऐसी नाटकीयता से दिखाया, मानो उन्होंने किसी दुर्दान्त इनामी दस्यू (डाकू) को गिरफ्तार कर लिया हो, जबकि मुझे मेरे ही एक रिश्तेदार ने (भुआ के बेटे) धोखे से गिरफ्तार करवाया था। मैं मेरी तब तक की समझ के अनुसार, किसी भी स्थिति में गिरफ्तार नहीं होना चाहता था। उस समय के मेरे कच्चे मन में मेरे जीवन को बर्बाद करने वाले लोगों के विरुद्द (जिनके बारे में तब तक मुझे कोई जानकारी भी नहीं थी, वे कौन थे) भयंकर गुस्सा था, जिन्होंने झूठे और घिनौने आरोप में मुझे फंसाया था। उनसे बदला लेने के अनेक प्रकार के विचार थे। कुल मिलाकर मैं गिरफ्तार नहीं होना चाहता था।
मैं यहाँ पर यह अवगत करवाना जरूरी समझता हूँ कि जैसे ही मुझे घटना के तीसरे दिन समाचार-पत्रों के माध्यम से ज्ञात हुआ कि मैं जिस मन्दिर में रहता था, उसमें एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ और बाद में उसकी मृत्यु हो गयी, जिसके आरोप में मन्दिर के पुजारी को पुलिस ने हिरासत में लिया था और बाद में छोड भी दिया था। जिसके कारण गुस्साई आम जनता ने थाने पर पथराव किया और थाने को आग लगाने का भी प्रयास किया गया तो पुलिस ने जनता को बताया कि पुजारी नहीं, बल्कि असली अपराधी दूसरा है।
अपराधी के रूप में मेरा नाम प्रेस को जारी किया गया था। यह सब पढकर मुझ पर क्या गुजरी होगी? इस बारे में आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं! उस दिन की मेरी मनोस्थिति को मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता। यदि घटना के दिन मैं, जिस व्यक्ति के यहाँ पर था, वह साक्षी नहीं होता तो मेरे लिये कम से कम अपनों को तो सिद्ध करना असम्भव था कि मैं घटना वाले दिन अपने कमरे (मन्दिर) पर था ही नहीं। इसके चलते मेरे सभी स्वजनों को बाद में मुझसे मिलने के बाद तो इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया था कि मैं निर्दोष था और षड़यंत्र का शिकार हो चुका था। इस बात से कुछ पाठक मित्रों की यह भ्रान्ति समाप्त हो जानी चाहिये कि मेरे परिवारजनों ने मुझ पर, मेरे निर्दोष होने पर, विश्वास क्यों नहीं किया?
अब सवाल है कि जब परिवारजनों ने विश्वास कर लिया तो फिर परिवारजनों द्वारा मुझे क्यों मृत्यु से भी बदतर सजा दी जा रही है? अन्य अनेक कारणों के अलावा इस बात को भी समाज के समक्ष लाने के लिये यह दास्तां लिखी जा रही है। जिससे कि मेरे माता-पिता, भाई-बन्धुओं के सामाजिक उत्पीडन से दुनिया अवगत हो सके।
जैसा कि सभी जानते हैं कि विद्यार्थी जीवन अनेक प्रकार की उमंगों से भरा होता है, मेरा तो कुल मिलाकर विद्यार्थी जीवन ही 6-7 वर्ष का था, सो मेरा जीवन भी उमंगों से और अनेक प्रकार की आकांक्षाओं से भरा हुआ था। बीए की अन्तिम वर्ष की परीक्षाएँ मई, 1982 में होने वाली थी। मैं पिछले वर्षों से भी अधिक मेहनत कर रहा था। बीए करके अपने राज्य की राजधानी स्थित यूनीवर्सिटी में प्रवेश लेकर अर्थशास्त्र में एमए करने का इरादा था।
मैं जिस कस्बे में पढ रहा था, वहाँ पर 1977 में ही पहला कॉलेज खुला था, सो उस समय तक कस्बे में नौकरियों की प्रतियोगिताओं के बारे में विशेष कुछ जानकारी नहीं मिल पाती थी। फिर भी मेरी चाह थी कि सबसे पहले एमए करके कॉलेज में व्याख्याता बनूँ और फिर आर्थिक समस्या से निजात मिलते ही पूयीएससी की तैयारी करनी है। कलेक्टर बनने या अपने राज्य की पीएसएसी के माध्यम से प्रशासनिक सेवा में जाने की तीव्र आकांक्षा थी। पता नहीं सफल हो भी पाता या नहीं, लेकिन आशा तो थी ही।
सारी की सारी उमंगें समाचार-पत्र में बलात्कारी और हत्यारे के रूप में अपने आपका नाम पढकर धडाम से टूट गयी। ऐसा लगा मानो मुझे कई मंजिल ऊपर से बेहरहमी से जमीन पर फैंक दिया गया हो और मुझे लगा कि मैं पूरी तरह से पंगु हो गया हूँ। किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा मैं सोच ही नहीं पा रहा था कि किया क्या जाये? बस एक ही विचार बार-बार दिमांग में कौंध रहा था कि पुलिस ने पकड़ लिया तो बहुत मारेगी। प्रकाशित समाचार के अनुसार कस्बे का माहौल बहुत खराब था। आम लोगों का आक्रोश सातवें आसमान पर था। जिसके चलते छोटे से कस्बे का नाम राज्य के सबसे बड़े समाचार-पत्र के प्रथम पृष्ठ पर था। मैं उस समय भी इतना तो जानता ही था कि पहले पृष्ठ पर खबर छपने का मतलब क्या होता है।
ऐसे में मैंने, जिनके यहाँ पर था, उनसे सलाह की, मुझे सलाह दी गयी कि यदि इस समय मैं जनता की पकड़ में आ गया तो जनता मुझे जान से खतम भी कर सकती है। अत: कुछ समय तक इधर-उधर गायब रहना ही ठीक होगा। इसके अलावा मैंने भी अपने तब के विवेक से पुलिस की गिरफ्तारी से बचने का निर्णय लिया और कहीं दूर, अनजान जगह पर भाग जाने का तय किया, लेकिन कहाँ? तब तक मुझे अपने तहसील मुख्यालय से आगे का तो कोई ज्ञान था ही नहीं। इससे पूर्व एक बार दो दिन के लिये अपने राज्य की राजधानी में गया। अन्यथा मेरा तब तक जीवन अपने गाँव और तहसील मुख्यालय तक ही सीमित था।
विपन्नता को खूब सहा था। हमेशा हाथ तंग रहता था। मेरी जेब में उस समय कोई 10 रुपये तथा कुछ चिल्लर ही थी। बस या रेल में यात्रा करने पर किसी के द्वारा पहचाने जाने का भय (क्योंकि समाचार-पत्रों में मेरा फोटो भी छप चुका था) और जेब में बचे रुपयों के खर्च हो जाने के बाद क्या होगा, यह सवाल भी मुंह बाये सामने खड़ा था? फिर भी उस विकत स्थिति में कोई न कोई निर्णय तो लेना ही था। जिनके यहाँ रुका था, उनसे रुपये मांगने ही हिम्मत नहीं हुई और उन्होंने आगे से ममद के लिये कहा नहीं। उनकी आर्थिक दशा भी बहुत अच्छी नहीं थी, हो सकता है, उनके पास भी उस समय धनाभाव रहा हो?
विपन्नता को खूब सहा था। हमेशा हाथ तंग रहता था। मेरी जेब में उस समय कोई 10 रुपये तथा कुछ चिल्लर ही थी। बस या रेल में यात्रा करने पर किसी के द्वारा पहचाने जाने का भय (क्योंकि समाचार-पत्रों में मेरा फोटो भी छप चुका था) और जेब में बचे रुपयों के खर्च हो जाने के बाद क्या होगा, यह सवाल भी मुंह बाये सामने खड़ा था? फिर भी उस विकत स्थिति में कोई न कोई निर्णय तो लेना ही था। जिनके यहाँ रुका था, उनसे रुपये मांगने ही हिम्मत नहीं हुई और उन्होंने आगे से ममद के लिये कहा नहीं। उनकी आर्थिक दशा भी बहुत अच्छी नहीं थी, हो सकता है, उनके पास भी उस समय धनाभाव रहा हो?
पाठक तय करेंगे कि मेरा निर्णय कितना सही था, लेकिन मैं आज भी मानता हूँ कि मेरा निर्णय सौ फीसदी सही था। मैंने अपने कस्बे को ही नहीं, बल्कि अपने जिले की सीमा को भी पार करने का तय कर लिया। लेकिन कुछ दूरी तय करते ही कदम रुक गये। अपने आपसे मैंने एक सवाल किया, किस रास्ते से जाओंगे? रास्ते में किसी ने पहचान लिया तो क्या होगा? तब बिना रास्ते जंगल और खेतों में होकर चलने का विचार आया तो फिर सवाल उठा कि कोई पूछेगा कि रास्ते के बजाय मैं इस प्रकार बेरास्ता क्यों भटक रहा हूँ तो क्या जवाब दूँगा? कॉलेज के कपड़ों में इस प्रकार भटकने पर कोई भी मुझ पर आसानी से सन्देह कर सकता था।
कुछ क्षण सोचा और अपने थैले (बैग रखने लायक तो आर्थिक स्थिति थी नहीं, मेरे पास कपड़े का सिला हुआ एक साधारण थैला था, जो कहीं आने-जाने के समय जरूरी कपड़े रखने के लिये उपयोग किया जाता था। जिसे मैं कस्बे से बाहर जाते समय अपने साथ ले गया था) को मैंने देखा उसमें एक जोडी अण्डरवियर-बनियान, तौलिया, शर्ट और लुंगी रखी थे। मैं कॉलेज के दिनों से अभी तक सफारी शूट पहनने का शौकीन हूँ। (यह भी मेरी पहचान का संकेत है।) उस दिन भी सफारी शूट पहन रखा था। सफारी शूट झटपट उतारा और थैले में रखी लुंगी लपेटी, शर्ट पहनी और तौलिया को सिर पर ऐसे बांध लिया जैसे कि गाँव के लोग बांधते हैं और सफारी शूट को थैले में रख लिया। एक बार फिर से गाँव के चरवाहे का रूप धारण कर लिया और अपने कल्पित (सोचे) मार्ग पर निकल लिया। अब लोग पूछेंगे कि बेरास्ता क्यों चल रहे हो तो इसका मेरे पास जवाब था-"मेरी भैंसें कहीं खो गयी हैं, उन्हें ढूँढ रहा हूँ, क्या कहीं देखा है?" गर्मियों के समय अकसर ग्रामीणों की भैंसें गाँव का रास्ता भटक जाती हैं, जिन्हें ढूँढने वाले इसी प्रकार खेत-खेत और जंगल-जंगल भटकते रहते हैं। मैं भी पूर्व में इस प्रकार अपनी भैंसों को ढूंढते हुए अनेक बार भटक चुका था।
मैं खेतों को पार करते हुए, चला जा रहा था। रास्ते में एक कुआ आया। पानी पिया और पेड़ की छांया में तौलिया बिछाकर लेट गया, नींद आ गयी और जब नींद खुली तो रात्री होने को थी। कुए के मालिक ने ही जगाया था। पूछा तबियत तो ठीक है? कुछ खाया है या नहीं? (मैं सोने से पहले ही उसे भैंस खोजने वाली बात बतला चुका था।) कहते हुए उसने अपने खेत के कुछ फल मुझे खाने को दे दिये। खाकर सन्तोष हुआ कि चलो आज का दिन तो खाली पेट नहीं सोना पड़ेगा। पानी पीकर चलने को हुआ तो कुआ मालिक बोला रात्री हो गयी है, कहाँ जाओगे यहीं सो जाओ। अपने अन्दर से एक आवाज आयी कि रात्री गुजारने का अच्छा अवसर है, लेकिन तत्काल दूसरी आवाज भी आ गयी रातभर कुआ-वाला तरह-तरह की बात करेगा और नाम-गाँव पूछेगा तो मेरी असलियत पता चल सकती है। सो तय किया कि "नहीं मुझे गाँव में भैंसें तलाशनी हैं। चलता हूँ" और बिना एक क्षण रुके या बिना कुए वाले के प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा किये चल दिया।
चलते-चलते रात हो गयी। रात कैसे गुजारी जाये? यह सवाल अभी भी बार-बार कौंध रहा था। बस सन्तोष इतना सा था कि गर्मी का मौसम होने के कारण सर्दी का भय नहीं था। इसी उधेड़बुन में कई किलोमीटर तक चलते-चलते मैं फिर एक कुए पर पहुंच गया। तब तक रात्री के कोई 10 बज गये थे। कुए के पास में ही लेज (रस्सी)-बाल्टी पड़ी थी। (उस जमाने में किसान अकसर अपने कुआ पर लेज-बाल्टी रखे रखते थे, जिससे कि कोई भी राहगीर प्यासा कुए पर आये तो प्यासा वापस नहीं जाये।) बाल्टी कुए में डाली पानी पिया। कुए पर कोई नहीं था, एकदम सन्नाटा छाया हुआ था। दूर कहीं सियारों की आवाज सुनाई दे रही थी। कुछ दूरी पर दियों (दीपकों) की जुगनू की भांति टिमटिमाती रोशनी से किसी गाँव या आबादी का अहसास हो रहा था। कुआ के पास में ही एक झोंपडी बनी हुई थी। जिसमें अंधेरे में कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। उस दिन धूम्रपान नहीं करने की आदत पर भी अफसोस हुआ कि काश धूम्रपान करता होता तो साथ में माचिस तो होती और माचिस जलाकर देख सकता था कि झोंपडी के अन्दर क्या है? खैर अंधेरे में ही झोंपडी से दूर सुनसान खेत में अपना तौलिया बिछाया और अपने थैले का तकिया बनाकर सो गया। हालांकि जंगल में इस प्रकार अकेले में सोने में कई प्रकार के भय भी थे, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प भी तो नहीं था।
दिन में सो लेने और भयाक्रान्त हालातों के कारण इतना तनाव था कि नींद कहीं दूर-दूर तक भी नहीं भटक रही थी, लेकिन विचार तन्द्रा में न जाने कब आँख लग गयी, कुछ घण्टे सोया। सूर्योदय से पूर्व ही जागा और नैतिक क्रियाकर्मों से निवृत होकर चल दिया। 07 बजे तक मैं अपने जिले की सीमा पार कर चुका था और सांझ होते-होते मैं अपने आराध्य के प्रांगण में था।
इस प्रकार मेरे दिन और रात नये-नये अनुभवों के साथ गुजरते गये, लेकिन मुझे आपको यह बतलाते हुए आश्चर्य हो रहा है कि इतने दिनों तक मेरी जेब में रखे रुपयों में से मुझे दो-तीन रुपये ही खर्च करने पडे, जो भी खाने पीने पर नहीं, बल्कि माचिस, मोमबत्ती और साबुन खरीदने पर, स्वेच्छा से खर्चे। आगे से आगे मेरे खाने और ठहरने की व्यवस्था होती गयी।
हालांकि इस बीच एक दिन ऐसा भी आया जब जंगल के रास्ते पेड़ की डाली को हटाकर निकलते समय काला सांप मेरे सिर से मात्र कुछ इंच की दूरी पर जीभ लपलपा रहा था और मेरे लिये पेड़ को हिलाये बिना, पेड़ के नीचे से निकल पाना असम्भव था।
खैर जैसे-तैसे सब कुछ निकल गया और भटकते-भटकते एक रिश्तेदार के सम्पर्क में आया, वह मुझे सामने देखते ही ऐसे घबराया मानो उसने किसी जिन्द को देख लिया हो, उसने झटपट मुझे अन्दर छिपा दिया और वहीं पर मेरे खाने-पीने की व्यवस्था कर दी। एक दिन और एक रात मुझे सूरज के दर्शन नहीं करने दिये। इस बीच उसने मेरे परिवारजनों एवं अन्य रिश्तदारों से सम्पर्क किया और उनकी सलाह पर मुझे मेरी बुआ के यहाँ जाने की सलाह दी हालांकि साथ ही हिदायत दे दी कि मैं बुआ के गाँव में नहीं, बल्कि उनके खेत पर जाऊँ और रात्री को पहुँचू, वहाँ पर मुझे आगे की जानकारी दी जायेगी।
कुछ दिनों की पैदल यात्रा के बाद जैसे-तैसे मैं भुआ के खेत पर पहुँचा, उन सभी ने भी मुझे खेत पर जानवरों के लिये बन बाड़े के झोंपडों में छिपाकर रखा और अगले दिन (01.05.1982) सुबह मुझे बाहर आने को कहा। पास में ही बह रही नदी पर नहाया और खाना खाया। मुझे बताया गया कि किसी बड़े आदमी से सिफारिश करवादी गयी है, इसलिये जल्द ही मामला समाप्त हो जायेगा। साथ ही मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करने की सलाह दी गयी और इसी प्रकार की बातें करते हुए मेरी बुआ के लड़के मुझे अपने खेत से गाँव की ओर साथ लेकर चल दिये। कोई आधा किलोमीटर चलने के बाद एक पेड़ के नीचे पुलिस की जीप दिखी थी। मैंने बुआ के लड़के से कहा कि ये क्या है? उसने कहा "मेरे पास-और कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि पुलिस ने मामाजी को (मेरे पिताजी को) थाने पर बिठा रखा है! इसलिये तेरी गिरफ्तारी जरूरी है।" मैं भाग भी नहीं सकता था, फिर भी उन्हाने मेरा हाथ इस प्रकार से पकड़ लिया जैसे कि मैं भाग नहीं सकूँ। पुलिस को देखने के बाद और भुआ के लड़के की असलियत सामने आते ही मेरे मन में न जाने कितने प्रकार के विचार और सवाल-जवाब कौंध गये। लेकिन मेरे पास कोई रास्ता शेष नहीं था।
कुछ कागजी खानापूर्ति करने के बाद पुलिस मुझे पास के थाने पर ले गयी, जहाँ पर पुलिस ने हाथ में हथकड़ी डालकर और मेरी बुरी दशा में ही मेरे फोटो निकलवाये। फोटो निकालने वाला मेरा कई वर्ष पूर्व का परिचित व्यक्ति था और वह मुझे बहुत इज्जत देता रहा था, लेकिन उस दिन वह एक अपराधी के रूप में मेरा फोटो निकाल रहा था। इस थाने से मुझे उस थाने पर ले जाया गया, जहाँ पर मेरे खिलाफ मामला पंजीबद्ध था। जहाँ पहुँचते ही मुझे हवालात में बन्द कर दिया। हवालात में पहले से ही एक अन्य व्यक्ति बन्द था, जिसके बारे में पूछताछ करने पर पता चला कि वह सीमान्त प्रान्त का इनामी डकैत था।
नोट : हवालात में क्या-क्या हुआ और पुलिस का व्यवहार कैसा रहा? आदि विषयों पर आगे लिखूँगा, लेकिन इससे पूर्व पाठकों से अनुरोध है कि-
-कृपया मुझे अपनी राय से अवगत करावें कि हवालात में और बाद में जेल में अनेक अच्छे-बुरे (मेरी राय में) कैदियों, से मेरी मुलाकात होनी है, जिनमें से कुछेक की संक्षिप्त दास्ताँ भी समाज, न्यायिक, पुलिस और जेल व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाली है।
-मेरा सवाल है कि क्या मैं, इन सभी के बारे में भी संक्षेप में लिखूँ या सिर्फ अपनी दास्तान तक ही सीमित रहूँ। वैसे फिल्मों के आधार पर कोर्ट, पुलिस और जेल को जानकर, इन सब के बारे में राय बनाने वाले पाठकों के लिये यह एक अवसर है कि इन सबकी असलियत को जानें और समझें। कृपया अपनी राय से खुलकर अवगत करावें।
-यहाँ पर आप सभी पाठकों से निवेदन है कि कृपया विश्वास करें कि जो भी लिख रहा हूँ, उसमें अतिरंजना को दूर रखकर, शतप्रतिशत सच्चाई, बल्कि सच्चाई को भी संक्षेप में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
-हाँ कोर्ट के मामले में संयमित भाषा का उपयोग करना मेरी विवशता होगी है, क्योंकि न्यायिक अवमानना की तलवार कोर्ट की ओर से हमेशा टंगी रहती है। इस बारे में भी आगे चलकर मैं विधि एवं न्याय व्यवस्था से जुड़े पाठकों की राय जानने का अनुरोध करूँगा।
क्रमश: जारी.........
1- मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।
3- यदि आप मुझे मेल करना चाहें तो मेरा मेल आईडी निम्न है। कृपया व्यक्तिगत पहचान प्रकट करने वाले सवाल नहीं करे।
umraquaidi@gmail.com
2- थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा।
पाठकों की प्रतिक्रियाओं का इन्तजार..............